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*गुरु द्रोण ने कहा—* “वत्स! तुमने मेरे उपदेश का अक्षरशः पालन किया।”

दरअसल गुरु के ज्ञान को, उपदेश को सुन लेना, लिख लेना और रट लेना ही पर्याप्त नहीं, *बल्कि उसे जीवन में उतारना, जीना आवश्यक है।*

रोटी-रोटी, सेब-सेब कहने, चिल्लाने, लिखने या रट लेने मात्र से रोटी या सेब का स्वाद नहीं मिल जाता।

*उसे तोड़कर मुख में डालना पड़ता है, चबाना पड़ता है, तब जाकर उसका स्वाद हमें मिल पाता है।*

वैसे ही गुरु का मिल जाना पर्याप्त नहीं, *बल्कि गुरु के द्वारा प्राप्त ज्ञान को, उपदेश को जीवन में जीने का अभ्यास करना महत्वपूर्ण है,*

*तभी उस ज्ञान का स्वाद हमें मिल पाता है और हमारे जीवन पर उस ज्ञान का, उपदेश का असर दिखना प्रारंभ होता है।*